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बेटे का सुख ?

ये है हिंदुस्तान मेरी जान
ये है हिंदुस्तान मेरी जान
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बीते दिनों की दो अलग अलग घटनाओं के संदर्भ में अपनी बात की व्याख्या करूंगा। पहली घटना देश का दिल कही जाने वाली दिल्ली की है जहां एक अरबपति कारोबारी दीपक भारद्वाज की हत्या उनके अपने बेटे ने करा दी और दूसरी घटना कानपुर की है जहां एक कलयुगी बेटे ने पत्नी से झगड़ने पर अपनी माँ की आँख फोड़ दी। हालांकि इस भौतिक युग में हम सबको ऐसी दिल दहला देने वाली घटनाओं को देखने और सुनने की आदत पड़ चुकी है लेकिन सवाल बस इतना सा है कि “क्या ऐसे ही पैशाचिक बेटों की चाहत के लिए लोग बेटियों को कोख में मार देते हैं ?”

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बड़ा प्रश्न है ? . . . . . . . . . जिन बेटों कि चाहत के लिए माता- पिता बेटियों को धरती पर एक पल भी सांस न लेने देकर कोख में ही मौत की नींद सुला रहे हैं, उन बेटों से उन्हें क्या सुख मिल रहा है ? पुरानी कहावत है कि बेटा माँ बाप के बुढ़ापे की लाठी होता है लेकिन उसी लाठी के प्रहार से आज माँ बाप अपने प्राण गंवा रहे हैं। बेटों को बेटियों की तुलना में अधिक अधिमान देने के पीछे कई सामाजिक कारण है जिनमें वंश परंपरा को आगे बढ़ाना, दहेज, बुढ़ापे का सहारा होना आदि प्रमुख हैं। आम धारणा के अनुसार अमुक्त लोग आर्थिक कारणों का हवाला देते हुए कहते हैं कि भारत एक गरीब देश है और अशिक्षित लोगों की बहुलता (हालांकि देश बहुत अमीर है लेकिन लोगों को जानबूझकर सदियों से गरीब और अशिक्षित रखा जा रहा है) के कारण लोग बेटी को बोझ समझकर उससे जन्म लेने का अधिकार छीन लेते हैं किन्तु विभिन्न अध्ययनों ने इस बात को सिरे से नकार दिया है। ये कन्या भ्रूणहत्या का कुकृत्य छोटे शहरों और कस्बों के बजाय बड़े बड़े महानगरों में ज्यादा तेज़ी से फल फूल रहा है। तकनीक का भी इसमें अहम है, 90 के दशक में अल्ट्रासाउंड मशीन के भारत में आने के बाद से इन कुकृत्यों की संख्या में गुणोत्तर वृद्धि हुई है।

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बेटों की चाहत और बेटी की अवहेलना का परिणाम है कि 2011 की जनसंख्या के आंकड़ों को आधार मानकर देखा जाए तो देश में प्रति हजार पुरुषो पर महिलाओं की संख्या 940 रह गई है। दिल्ली और एनसीआर जैसे अति साक्षर क्षेत्र पिछड़े राज्यों से भी ज्यादा पिछड़े हुए हैं जहां प्रति हजार पुरुषो पर महिलाओं की संख्या सिर्फ 866 हैं। चंडीगढ़ जैसे विकसित, समृद्ध और सम्पन्न क्षेत्र में तस्वीर और भी चिंताजनक है जहां प्रति हजार पुरुषो पर महिलाओं की संख्या सिर्फ 818 हैं। 0-6 साल के उम्र के बच्चों में यह अंतर और भी भयावह है। जहां प्रति हजार पुरुषों में महिलाओं की संख्या 914 हैं जो आज़ादी के बाद से अब तक न्यूनतम है जबकि आज़ादी के बाद से साक्षारता और संपन्नता निरंतर बढ़ रही है तो किस आधार पर माना जाए की कन्या भ्रूणहत्या का कुकृत्य की ज़िम्मेदार अशिक्षा और असंपन्नता है ? आज के सामाजिक परिपेक्ष्य में बेटियों के कोप भाजन का यदि कोई वैध कारण हो सकता है तो वो है बेटियों की ‘सुरक्षा की भावना’। देश में प्रति घंटे 2- 3 बहन बेटियों के साथ दुष्कर्म हो रहे हैं। ऐसे माहौल में माता-पिता द्वारा बेटियों की चिंता करना स्वाभाविक है।

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आज बेटियों और महिलाओं को तिरस्कृत करना समझ से परे है जबकि बेटियाँ प्रत्येक क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो रही हैं और जबकि युवाओं में दहेज प्रथा के खिलाफ ज़बरदस्त माहौल है तो ऐसे में दहेज भी बेटियों के लिए अभिशाप नहीं हो सकता। बेटी पर बेटे को तरजीह देने का मूल कारण ‘मानसिकता’ है। बेटे को आज़ादी और बेटी पर प्रतिबंध के कारण ही बेटों में नैतिकता का अभाव होता जा रहा है, जिस कारण उनमें अपराध की प्रवत्ति बढ़ रही है। यदि बेटियों की तरह बेटों को भी बचपन से कदम कदम पर नैतिकता का पाठ पढ़ाया जाए तो यौन अपराधों को बड़े स्तर पर कम किया जा सकता है। जिस बेटे की अच्छी शिक्षा, अच्छी से अच्छी परवरिश के लिए माता-पिता अपनी पूरी ज़िंदगी धन जोड़ने में लगा देते हैं वही बेटा उनके बुढ़ापे को नर्क समान बनाने में कोई कसर नहीं छोडता है। ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जब माता-पिता की मृत्यु के बाद बेटे जायदाद और संपत्ति के लिए भाई भाई के खून के प्यासे हो जाते हैं। जबकि बेटियों को संपत्ति से ज्यादा माता-पिता से स्नेह होता है। फिर बेटों से किस सुख की आस में बेटियों की कोख में हत्या की जा रही है ? माता-पिता द्वारा धन संचय ना करने पर वही बेटा बुढ़ापे में ताना मारता है कि “तुमने मेरे लिए किया ही क्या है ?” और धन संचय ज्यादा हो जाए तो वही बेटा जान का दुश्मन बन जाता है। शायद बेटों कि इसी प्रवत्ति को भांपकर कबीर दास जी ने कहा था,

पूत सपूत तो का धन संचय ?

पूत कपूत तो का धन संचय ?

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कुछ लोगों को शायद ये बात अजीब लगे और शायद कुछ इससे इत्तेफाक भी न रखें लेकिन बेटियों/ महिलाओं पर हो रहे ज़ुल्मों में लगभग आधों के पीछे कोई बेटी या महिला जरूर होती है। घरेलू हिंसा में बहू को प्रताड़ित करना, दहेज के लिए बहुओं को जलाना, कुछ दुष्कर्मों आदि अपराधों में पापी पुरुषों के साथ कहीं न कहीं एक महिला भी पूरा साथ देती है। सर्वप्रथम महिलाओं/ बेटियों को खुद बेटियों के खिलाफ जुल्मों में भागीदारी शून्य करनी पड़ेगी तभी महिला सशक्तिकरण की बात करना ईमानदारी होगी और हाँ, ये बेटों को शुचिता का प्रमाण पत्र नहीं है।

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आज दुनिया के सबसे ताकतवर लोगों की सूची में दूसरा स्थान एक महिला का है। दुनियाभर के 17 देशों की वर्तमान प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति महिलाएं हैं, 6 देशों में महारानी हैं और दुनियाभर के सैकड़ों राज्यों की मुख्यमंत्री या राज्यपाल भी महिलाएं ही हैं। इन महिलाओं का अपने व्यवसायिक और वैवाहिक जीवन में समन्वय भी तारीफ के काबिल है तो फिर ऐसे कुकर्मी बेटों की चाहत का क्या औचित्य? लोगों को बेटे के सुख (?) का मोह छोड़कर अपनी मानसिकता में सिर्फ इतना सा बदलाव लाना होगा कि जिस सुख की अपेक्षा वो बेटों से करते हैं, वही या उससे भी उत्तम प्रकार का सुख बेटियों से प्राप्त किया जा सकता है। यदि ऐसा हुआ तो इसके सकारात्मक परिणाम हमें अगली जनगणना के बाद जरूर दिखाई देंगे और हम बेटियों के जन्म के बाद उन्हें एक स्वस्थ्य माहौल भी मुहैया करा सकेंगे।

“यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता”

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http://anandpriyarahul.blogspot.in/2013/04/blog-post_17.html

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